अन्वयव्यतिरेक – भाग १

“परलोक में तुम्हारा कौन है?” दरवाजे पर खड़े व्यक्ति ने पूछा।

कुछ देर तक तो सताक्षी देखती रही और सोचती रही परलोक? पहली बार तो नहीं सुन रही थी वो ये शब्द, कितनी बार लोगों को जाते देखा है उसने… करीबियों को भी और अजनबियों को भी। कुछ के सिरहाने बैठी थी उस आखरी घड़ी में पत्थर की तरह, कुछ का जाना उसने जाने दिया, कुछ भी असामान्य या असहज नहीं था। कुछ एक के जाने पर उसने हताशा और निराशा को देखा था और कोई कोई ऐसे गया कि वो अंत तक जैसे ख़ुद से ही लड़ रही थी कि जाने वाले को जाने दे या नहीं। पर जाना था जिसे वो गया ही, उसके मन में कई प्रश्न चिन्ह रह गए कहने वाले हमेशा यही कहते “परलोक को गया/गई है”।

सताक्षी के मन में परलोक का चित्र था, जैसे कोई बर्फीली जगह हो और उसमें सुनहरी धूप बिखरी हुई हो। हवा में शीतलता तो हो पर अपनेपन की गरमाहट भी हो, नीले नीले फूल खिले हों और सफ़ेद चिड़ियों के जोड़े हों, कहीं से कलकल बहता झरना भी दिखता हो।

पूछने वाले ने फिर से पूछा..”किसी से मिलने आई हो या अंदर प्रवेश चाहती हो”।

उत्तर अब भी नहीं था सताक्षी के पास पर वह समझ रही थी उसे उत्तर देने की जरूरत भी नहीं। द्वार पर खड़ा व्यक्ति समझ जाएगा मौन उसका। उसने नज़र उठा कर दरवाजे के बीच से पीछे का दृश्य देखने का प्रयास भर किया था कि जैसे दीवार ढह गई और रह गई हल्की सर्दियों की सुबह की सी ओस की एक झीनी सी चादर, जिसे वो कभी भी पार कर सकती थी। चादर के उस पार सबकुछ वैसा ही था जैसा उसके मानस पटल पर अंकित चित्र था।

आह… कितना सुंदर सा था सब कुछ, उसके मन में विचार आया कि लोग जो परलोक सिधार जाते हैं वो ऊर्जा पुंज ही तो बन जाते हैं। मन में विचार आते ही उसकी दृष्टि जैसे व्यापक हो गई और उसे कोहरे की चादर के पीछे उड़ते हुए ऊर्जा पुंज भी नजर आने लगे। कुछ झुंड में थे और कुछ अकेले ही उड़ रहे थे। मन का अगला विचार… इनमें कहीं अपने भी होंगे जो बिछड़ गए हैं… और फिर विचार आते ही उसे वो ऊर्जा पुंज चेहरे से नज़र आने लगे। जैसे जैसे चेहरे उसके समीप आते वो भावनाओं के समंदर में गोते खाने लगी। उसे वो हर चेहरा नजर आया जिसके चले जाने की वो किसी ना किसी रूप में शाक्षी रही। एक चेहरा कितना क्रूर था, वो सामने आया तो इतनी डरी कि लगा बस अब उसके प्राण उड़ गए।

जीवन – मृत्यु की जद्दोजहद एक बार फिर उसके सामने आ खड़ी हुई थी। उस चेहरे को देख कर मन का विचार बदला। क्या क्रूरता की परिभाषा गढ़ने वालों के लिए भी परलोक के द्वार खुले हैं? क्या परलोक स्वर्ग नहीं? इन्हें नर्क में स्थान क्यों नहीं मिला? नर्क कहां है?

सामने का पर्दा जैसे उसके मन से ही संचालित हो रहा था या शायद सामने खड़ा व्यक्ति उसके मन को पढ़ कर दृश्य बदल रहा था। उसने देखा कि मन में नर्क का ख्याल आया ही था कि अचानक उसे यातनाओं की आवाज़ें आने लगी। वो क्रूर चेहरा जो उसके सामने अभी मुस्कुराता सा था, अभी पीड़ा से कराह रहा है।

पर यह सिलसिला अभी नहीं रुका। उसने अपने सबसे प्रिय व्यक्ति को भी उसी आग में जलते देखा। आग जो किसी कुंड में प्रज्वलित नहीं थी। उन्हीं ऊर्जा पुंजों की आग्नि उन्हें झुलसा रही थी। वही लोग जो क्षण भर पहले उन्मुक्त नजर आ रहे थे अब जैसे किसी अदृश्य बेड़ी में जकड़े हुए जल रहे थे।

भयानक था वह दृश्य और इतना भयानक था कि सताक्षी ने अपने नेत्र बंद कर दिए। उसे लगने लगा उसकी स्वयं की ऊर्जा भी समाप्त हो रही है और वह वहीं धरती… नहीं धरती तो नहीं थी वो, ना आकाश था… शून्य सा था कुछ। उसी शून्य में वह उस पल घुटने टेक कर बैठ गई।

घुटने टेक कर सताक्षी वहीं बैठ गई। सामने से प्रश्न उठा, “क्या हुआ? क्या लौट जाना चाहती हो?”। पहली बार सताक्षी दुविधा में आई… लौटे या ठहरे… लौट कर जाने के लिए क्या था उसके पास। एक घर, एक परिवार… जिसमें वो तो सबकी रही पर कोई उसका ना रहा। और ठहरने के लिए भी क्या था उसके लिए?

मन का द्वंद महाभारत सा लग रहा था और वो जैसे जीवन और मृत्यु के चक्रव्यूह में फंसे हुए अभिमन्यु की तरह हो चुकी थी। उसे जीवन चक्र में प्रवेश की विद्या का भान था पर शायद माता के गर्भ में वह भी चक्रव्यूह तोड़ कर बाहर आने का मार्ग सुन नहीं पाई थी।

इतनी देर में उसे इतना तो समझ आ गया था कि परलोक भी उसी चक्रव्यूह की एक पकड़ भर है। यातना हो, पीड़ा हो, प्रेम हो, अपनत्व हो, सब कुछ चक्रव्यूह का हिस्सा है। अचानक उसका प्राण जैसे पर कटे पंछी की तरह फड़फड़ाने लगा था। उसे मुक्ति चाहिए थी, मात्र जीवन से ही नहीं, मृत्यु से भी।

खड़गमाला – भाग 2

शीशे का टूटना शुभ हुआ या अशुभ? मन में पहला प्रश्न यही आया। पर आज की मोर्डर्न लड़की ये सब क्या और क्यों ही सोचेगी ऐसा… ये ख्याल आते ही वो वापिस पानी पि कर सोने लगी पर नींद आँखों से कोसो दूर थी। बिस्तर पर करवटें बदलते हुए अहसास हुआ जैसे कोई सामने बैठा उसे देख रहा है। उसे भय लगने लगा और फिर शिवप्रिया ने कम्बल के भीतर मुंह भी घुसा दिया।

सुबह गले और काँधे में भयंकर दर्द था, शिवप्रिया दिनभर लेटी रही और सोचती रही। एक दो बार कोशिश की उसने माँ को अपना सपना बताने की लेकिन जैसे उसकी आवाज़ ही कहीं खो जाती। कुछ तो हो रहा था उसके साथ, बस वो समझ नहीं पा रही थी क्या? शाम तक गर्म तेल की मालिश और माँ के घरेलु नुस्खों से उसका दर्द कम हो गया, पर मन में प्रश्न अब भी थे। जाने उस दिन क्या संयोग हुआ कि संध्या आरती के समय ही पंडित जी का घर पर आना हुआ। माँ के हाथ से चाय का प्याला लेते हुए पंडित जी बोले।
– शिवा बेटा…. (पंडित जी की आदत थी शिवप्रिया को शिवा पुकारने की) माँ काली के विषय में मुझे कुछ जानकारी चाहिए, अब कंप्यूटर के विषय में तुमसे अच्छा जानकार मेरी नज़र में तो है नहीं, तो क्या मदद कर दोगी?
– पर अंकल।।। क्या गूगल आपसे ज्यादा माँ काली के विषय में जानता होगा?(मज़ाकिया लहज़े में शिवप्रिया बोली)
– अरे बच्चे, कंप्यूटर भले ही ना जानता हो कुछ भी पर वह जानकारी तो जुटा ही लेता है ना एक ही बटन में, हमें तो शहर शहर भटकना पड़ेगा, फिर मंदिर मंदिर भटकेंगे… तब जा कर प्रभु इच्छा हुयी तो जानकारी जुटेगी। अब इतना ना तो समय है ना पैसा और दुनिया जहान के विद्वान जो किताबें लिख कर गए हैं उनको भी तो कंप्यूटर ढूंढ निकालता है। वो क्या कह पिछली दफा… चैट जीपीटी। बस उसी का जादू दिखा दो। देखो कितनी दूर से आएं हैं हम
– किधर दूर से आये हो आप? दो घर छोड़ कर तो रहते हो

बात करते समय शिवप्रिया के मन में दो बातें समान्तर चल रही थीं। एक तो यह कि क्या वह स्वप्न और पंडित जी का क्या कोई कनेक्शन है दूसरी कि क्या वह पंडित जी से प्रश्न पूछ सकती है इस विषय में?
माँ के सिवा इतना अधिकार उसे पंडित जी पर ही लगता था कि कुछ भी कह दे, इसकी एक वजह शायद यह भी थी कि पंडित जी माँ के मुंहबोले भाई थे।

मन झटक कर शिवप्रिया ने तय किया कि वह पंडित जी की बात को ही सुने और उसी पर ध्यान दे, अपने मन के वहम को तूल नहीं देगी। उसने पंडित जी से किस विषय पर जानकारी चाहिए वह पूछा। पंडित जी ने उसे दसमहाविद्याओं के विषय में पुस्तक और उनकी दुर्लभ तस्वीरों को खोजने का काम सौंप दिया।

मन की कच्ची पक्की शिवप्रिया पहले ही नवदुर्गाओं को समझने में असमर्थ थी और अब उसे दसमहाविद्याओं के विषय में खोजना था। वह पंडित जी ना भी नहीं कह सकती थी क्यूंकि पंडित जी का लड़ उसकी और इतना था कि भले ही उनके पास सब साधन उपलब्ध थे और वो कहीं से भी चीज़ें धुंध ला सकते थे पर फिर भी जब कभी उन्हें पुस्तकों के विषय में या कुछ नया खोजना होता था तो वो शिवप्रिया को ही कहते थे। उनका कहना था काम का होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की शुभ हाथों से काम का होना। उनके मन शिवप्रिया को लेकर एक अंधविश्वास (या शायद विशवास ) था कि वह शुभ है, कोई भी कार्य उसके हाथ हुआ है तो देवी माँ स्वयं उसे पूर्ण करने में सहाय हिंगी। ऐसा क्यों था कोई नहीं जानता था पर दुनिया में दो लोगों के लिए ही सही ख़ास होना शिवप्रिया के लिए ख़ास था।

दसमहाविद्या… शिवप्रिया ने रात में पहला प्रश्न अपनी माँ से ही पूछा पर उन्हें कुछ भी इस विषय में पता नहीं था। तो अब उसके पास गूगल देवता के अलावा कोई रास्ता भी नहीं था। आजकल टेक्नोलॉजी इतनी स्मॉर्ट हो गयी है कि हम सोचते हैं और गूगल ओपन करते ही हमारे सामने वही ऐड आने शुरू हो। गूगल ओपन करते ही महाकाली का विकराल रूप शिवप्रिया के सामने था। एक पल के लिए वह सोचने लगी क्या टेक्नोलॉजी उसके सपनों पर नज़र रख रही है। पर इस विषय पर रिशर्च करने के लिए कॉलेज के पूरे दो साल अभी बाकी थे। अभी उसे माँ काली और दस महाविद्याओं के विषय में जानना था। गूगल पर जैसे ही शिवप्रिया ने लिखा “दसमहाविद्या” और उसका लैपटॉप शटडाउन हो गया। सुबह से लैपटॉप चार्ज नहीं था और फ़ोन भी उसका स्वीटकॉफ होने ही वाला था तो उसने सोचा कल कॉलेज के बाद ही इस विषय में सोचा जाएगा। ऐसे भी पंडित जी ने कौनसा समय सीमा बंधी थी।

लाइट ऑफ करके शिवप्रिया सोने लगी पर बीते दिन के स्वप्न को याद कर सहम कर उसने फिर से लाइट ऑन कर ली। कुछ देर तक आँखें मीचे रहने की कोशिश के बाद धीरे धीरे नींद उस पर हावी होने लगी। अभी पूरी तरह वह नींद की आग़ोश में गयी भी नहीं थी कि उसे लगा कोई उसका माथा सहला रहा है।
ममत्व ही माता की पहचान है, डर उसके जहन से अपनी पकड़ छोड़ने ही लगा था कि उसे अपनी माँ की बात करने की आवाज़ बगल वाले कमरे से आयी। ऐसे कैसे मुमकिन था कि माँ उसके सिरहाने पर भी बैठी हो और बगल वाले कमरे में पापा से बात भी कर रही हो। डर जो अभी कहीं खो गया था वह फिर से काले नाग की तरह उसे डसने को तैयार था। शिवप्रिया में इतनी हिम्मत नहीं हुयी कि वो आँखें खोल कर देख ले। पर उन हाथों की छुअन उसे अपनेपन का अहसास दिला रही थी और उसकी अपनी माँ की आवाज़ यह अहसास दिला रही थी कि यहाँ उसके सिरहाने पर उसकी माँ नहीं कोई और बैठा है। उसने बड़ी हिम्मत करके हलकी सी पलकें खोलने की कोशिश कि तो बहुत ही मधुर स्वर में एक आवाज़ आयी,”सो जाओ”। आवाज़ यक़ीनन उसकी माँ की तो नहीं थी पर उस आवाज़ में दुनिया भर का वात्सल्य था। शिवप्रिया सोने लगी और अधखुली पलकें मूंदते हुए उसकी नज़र सामने शीशे पर पड़ी। शीशे में उसे केवल किसी कंठ पर झूलती हुयी मुंडमाला दिखी और फिर जाने वो सो गयी या बेहोश हो गयी।

खड़गमाला – भाग 1

ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै:

कहते हैं आप वर्षों देवी की उपासना करते रहें पर अगर उसकी अनुकंपा न हो तो आपका हठ किसी काम का नहीं है। माँ बच्चे के हठ के आगे तभी झुकती है जब वह स्वयं उसकी बात मान लेना चाहती है। और यदि वह स्वयं ही नहीं मानना चाहती तो उसे किसी भी प्रकार से मनाया नहीं जा सकता।

उसे साधक नहीं चुनते, वह चुनती है उन्हें जिनके द्वारा उसका नाम पुकारा जाना उसके कानों को प्रिय लगे, वह चुनती है उन्हें जिनके द्वार की गई उपासना से उसका मन प्रसन्न रहे, वह चुनती है उन्हें जिनके अश्रुओं की धारा उसका जलाभिषेक कर सकें। चुनाव का अधिकार माँ को ही है कि वह अपनी किस संतान को कब गोद में उठा ले और कब चलने के लिए धरती पर छोड़ दे।

एक माता जो कि शिव की अनन्य भक्त थीं, उसने केतु महादशा के शिव योग में अपनी बच्ची को जन्म दिया। जब वह बच्ची कुछ महीनों की थी और शिवरात्रि में माँ उसे शिवमंदिर ले गयी तो वहां जाने किस तरह वह माँ के हाथ से छूट गयी और शिवलिंग पर चढ़ाई जाने वाली भस्म से सन गयी। नन्हीं बच्ची को इस तरह सना देख सबने उस माता को बुरा भला समझा पर उस माता ने भस्म को ही शिव का आशीर्वाद समझ कर अपनी पुत्री को शिवप्रिया नाम दे दिया।

“शिवप्रिया” कहीं से कहीं तक शिव उपासना करना नहीं जानती थी। माँ के साथ शायद कभी खड़ी हुई हो मंदिर में पर चंचल मन को कहाँ साध पाती वो। शिव जो शक्ति का स्रोत हैं उन तक पहुंचने का मार्ग उसके लिए नहीं था। सिद्ध और महान योगी योगिनियों के बचपन के विषय में जब हम पढ़ते और सुनते हैं तो जानते हैं वो आम बच्चों से कितने अलग थे। शिवप्रिया आम से भी आम थी, इतनी आम कि भीड़ में वो भी है, इतना भी उसके आस पास के लोग नहीं जान पाते थे। हाँ अपने मन के संसार में वो साम्राज्ञी थी। उसका वह काल्पनिक संसार भी बड़ा अजीब था, उस संसार में शिवप्रिया सबकी प्रिय थी जो कि असल जीवन में कभी मुमकिन नहीं हो सका। कल्पनाओं में उसे एक बार मिलने वाला व्यक्ति उसे कभी भूलता नहीं था पर असल जीवन में शायद उसकी अपनी माँ के सिवा किसी को याद नहीं रहता था उसका होना। वो तो ये अच्छा था कि वो अपने माता पिता की इकलौती संतान थी इसलिए अपने पिता के नाम से जानी जाती थी वरना शायद यह भी नहीं होता।

शिवप्रिया का सहज आकर्षण मुस्लिम समाज की ओर था, उर्दू ज़ुबान और तहज़ीब उसे हमेशा आकर्षित करती थी और यही बात उसकी माँ को पसंद नहीं थी। माँ को किसी और धर्म से नफरत नहीं थी पर अपना धर्म सर्वाधिक प्रिय था और वो चाहती थी उसकी संतान भी अपने धर्म में ही रमे। धर्म तो नहीं कहा जा सकता पर मिश्री सी भाषा उर्दू और उर्दू की गज़लें, नज़्में जरूर शिवप्रिया की पसंद थी। जहाँ तक धर्म का प्रश्न है तो वह किसी भी धर्म में स्त्री के अस्तित्व को लेकर हमेशा संशय में रहती थी। उसे हमेशा ही लगता था धर्म और समाज कभी स्त्री जाति का सगा नहीं हो सकता। उसे घर के पुरुषों का व्यवहार भी उसके घर की स्त्रियों के लिए अलग ही रहा हमेशा। एक ही सन्तान होने से वह पापा की परी जरूर थी पर पापा का वही व्यवहार माँ के लिए बिल्कुल बदल जाता था। शिवप्रिया के अनुसार केवल पिता के  रूप में ही पुरुष स्त्री को प्रेम कर सकता है, बाकी सब झूठ है। फेमिनिज्म मटेरियल अगर कहा जाए उसे तो शायद गलत नहीं होगा।

शिवप्रिया उस समय अपने कॉलेज की एक सभा में थी जब माता काली का एक पोस्टर उसके सामने आया। ये एक फेमिनिस्ट सभा थी, और स्त्री के अधिकार को लेकर सेनेटरी पैड के साथ माँ काली को दर्शाया गया था। घर में मंदिर में माँ काली की तस्वीर उसने देखी थी, नवदुर्गा के विषय में माँ से कहानियां भी सुनी थी पर उसने कभी न सोचा ही था और न समझा ही था। पर आज यह पोस्टर जैसे उसके मस्तिष्क में बस सा गया था। उसे जाने क्यों ही बुरा लग रहा था। हालाकि वो लीडर नहीं थी अपने ग्रुप की, लीडर होना तो दूर की बात है उसे तो शायद कोई पहचानता भी नहीं था तो उसका अच्छा बुरा लगना क्या ही मायने रखता। ग्रुप का हिस्सा वो बस कुछ एक्स्ट्रा मार्क्स के लिए थी। ऐसी कोई विचारधारा भी नहीं थी कि बुरा ही लगता पर आज बुरा तो लग रहा था और इतना बुरा लग रहा था कि वो उस पोस्टर को भूल नहीं पा रही थी।

रात में उस दिन कई सालों बाद शिवप्रिया माँ की गोद में सर रोह कर बोली

– माँ आज कहानी सुनाओ न
– अरे तू क्या बच्ची है जो कहानी सुनेगी सोने से पहले
– सुनाओ न
– अच्छा कौनसी कहानी सुनाऊ, तुझे भगवानों की कहानियां तो बुरी लगती हैं
– काली माता की सुनाओ। स्त्री को सब जगह सुंदर दर्शाया जाता है फिर वो इतनी विकराल क्यों हैं?

माँ ने कहना शुरू किया। जब देवताओं की प्रार्थना पर माँ दुर्गा  शुम्भ निशुम्भ का वध करने के लिए प्रकट हुई तब उन्हीं दैत्यों की सेना के सेनापति चंड मुंड देवी के साथ युद्ध करने के लिए आये। तब माँ दुर्गा के शरीर से विकराल रूप वाली माता काली प्रकट हुई।

माँ को बीच में टोकती हुई शिवप्रिया ने पूछा

– देवी कैसे हवा से प्रकट हुई? पैदा नहीं हुई?
– देवी प्रकट ही होती है वो अजन्मा हैं
– ये सब क्या बकवास है माँ, ऐसा कहाँ होता है
– बस इस लिए कहा था मुझे कहानी सुनाने के लिए, तुझे विश्वास नहीं होता तो मत कर

गुस्से में माँ उठ कर चली गयी और शिवप्रिया माता काली के विषय में सोचते सोचते सो गई।

नींद में उसे लगा कि कमरे की डिम लाइट में एक साया कहीं से उठ रहा है और वह धीरे धीरे बड़ा हो रहा है। शिवप्रिया ने आँखें खोली तो उसे उस साये के आठ हाथ नज़र आये। बाकी तो पहचान नहीं पाई पर एक हाथ में खड्ग लिए हुए उस साये ने अचानक शिवप्रिया पर हमला किया और उसका सर धड़ से अलग कर दिया। सुबह के 3 बजे शिवप्रिया पसीने से तरबतर उठी और उसके बेड के सामने के शीशे में एक दरार पड़ी हुई थी जैसे अभी अभी चटका हो।

डिअर ब्रह्मांड

It takes two to Tao – The Tao of Physical and Spiritual

डिअर ब्रह्मांड,

कभी लिखना तुम पत्र मेरे लिए
पत्र ऐसा कि जिसमें महके उल्काओं की स्मृतियां
पत्र ऐसा कि जिसके हर अक्षर में हो आकाशगंगाओं की व्याख्या
पत्र ऐसा कि जिसकी श्री हो अंत से, आरम्भ की ओर
कभी लिखना तुम पत्र मेरे लिए

किसी पत्र में लिख भेजना
आनंद लहरी के आनंद की सीमा
किसी में बताना नटराज के नृत्य का राज़
कोई पत्र ऐसा भी लिखना कि जिसमें कुछ न हो
मौन हो जो , हो जो सच्चित
हो जिसके कण कण में शक्ति प्राण स्पंदित
कभी लिखना तुम पत्र मेरे लिए

कोई पत्र ऐसा भी हो तुम्हारा मेरे नाम कभी
जिसमें उस शक्तिमान की इच्छा का सब मान लिखा हो
जिसमें उस परम की इच्छा, क्रिया और ज्ञान का परिणाम लिखा हो
जिसमें उपासना के सब स्तरों का कर्मकांड लिखा हो
और गुरु कृपा का सारा प्रवधान लिखा हो
कभी लिखना तुम पत्र मेरे लिए

पाँचों भ्रमों और तीनों मलो के निवारण के लिए तुम
सुनो एक पत्र लिखना अलग से
बताना जीव और ब्रह्मा का भेद क्या है
समझाना कर्ता वास्तविकता है या नहीं
आणव का अर्थ और त्याग का मोल  बतलाना तुम
कभी लिखना तुम पत्र मेरे लिए

डिअर ब्रह्मांड,
कभी लिखना तुम पत्र मेरे लिए
कि जिस राह पर ले चले हो तुम मुझे
उस राह पर तुम्हारे सिवा कोई संगी, कोई साथी नहीं
तुम्हारे सिवा मेरा कोई अभिलाषी नहीं
बस एक तुम्हारे ही इशारों के सहारे चल पड़ी हूँ मैं
राह दिखाते रहना… भटकाना नहीं
कभी लिखना तुम पत्र मेरे लिए।

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