“परलोक में तुम्हारा कौन है?” दरवाजे पर खड़े व्यक्ति ने पूछा।
कुछ देर तक तो सताक्षी देखती रही और सोचती रही परलोक? पहली बार तो नहीं सुन रही थी वो ये शब्द, कितनी बार लोगों को जाते देखा है उसने… करीबियों को भी और अजनबियों को भी। कुछ के सिरहाने बैठी थी उस आखरी घड़ी में पत्थर की तरह, कुछ का जाना उसने जाने दिया, कुछ भी असामान्य या असहज नहीं था। कुछ एक के जाने पर उसने हताशा और निराशा को देखा था और कोई कोई ऐसे गया कि वो अंत तक जैसे ख़ुद से ही लड़ रही थी कि जाने वाले को जाने दे या नहीं। पर जाना था जिसे वो गया ही, उसके मन में कई प्रश्न चिन्ह रह गए कहने वाले हमेशा यही कहते “परलोक को गया/गई है”।
सताक्षी के मन में परलोक का चित्र था, जैसे कोई बर्फीली जगह हो और उसमें सुनहरी धूप बिखरी हुई हो। हवा में शीतलता तो हो पर अपनेपन की गरमाहट भी हो, नीले नीले फूल खिले हों और सफ़ेद चिड़ियों के जोड़े हों, कहीं से कलकल बहता झरना भी दिखता हो।
पूछने वाले ने फिर से पूछा..”किसी से मिलने आई हो या अंदर प्रवेश चाहती हो”।
उत्तर अब भी नहीं था सताक्षी के पास पर वह समझ रही थी उसे उत्तर देने की जरूरत भी नहीं। द्वार पर खड़ा व्यक्ति समझ जाएगा मौन उसका। उसने नज़र उठा कर दरवाजे के बीच से पीछे का दृश्य देखने का प्रयास भर किया था कि जैसे दीवार ढह गई और रह गई हल्की सर्दियों की सुबह की सी ओस की एक झीनी सी चादर, जिसे वो कभी भी पार कर सकती थी। चादर के उस पार सबकुछ वैसा ही था जैसा उसके मानस पटल पर अंकित चित्र था।
आह… कितना सुंदर सा था सब कुछ, उसके मन में विचार आया कि लोग जो परलोक सिधार जाते हैं वो ऊर्जा पुंज ही तो बन जाते हैं। मन में विचार आते ही उसकी दृष्टि जैसे व्यापक हो गई और उसे कोहरे की चादर के पीछे उड़ते हुए ऊर्जा पुंज भी नजर आने लगे। कुछ झुंड में थे और कुछ अकेले ही उड़ रहे थे। मन का अगला विचार… इनमें कहीं अपने भी होंगे जो बिछड़ गए हैं… और फिर विचार आते ही उसे वो ऊर्जा पुंज चेहरे से नज़र आने लगे। जैसे जैसे चेहरे उसके समीप आते वो भावनाओं के समंदर में गोते खाने लगी। उसे वो हर चेहरा नजर आया जिसके चले जाने की वो किसी ना किसी रूप में शाक्षी रही। एक चेहरा कितना क्रूर था, वो सामने आया तो इतनी डरी कि लगा बस अब उसके प्राण उड़ गए।
जीवन – मृत्यु की जद्दोजहद एक बार फिर उसके सामने आ खड़ी हुई थी। उस चेहरे को देख कर मन का विचार बदला। क्या क्रूरता की परिभाषा गढ़ने वालों के लिए भी परलोक के द्वार खुले हैं? क्या परलोक स्वर्ग नहीं? इन्हें नर्क में स्थान क्यों नहीं मिला? नर्क कहां है?
सामने का पर्दा जैसे उसके मन से ही संचालित हो रहा था या शायद सामने खड़ा व्यक्ति उसके मन को पढ़ कर दृश्य बदल रहा था। उसने देखा कि मन में नर्क का ख्याल आया ही था कि अचानक उसे यातनाओं की आवाज़ें आने लगी। वो क्रूर चेहरा जो उसके सामने अभी मुस्कुराता सा था, अभी पीड़ा से कराह रहा है।
पर यह सिलसिला अभी नहीं रुका। उसने अपने सबसे प्रिय व्यक्ति को भी उसी आग में जलते देखा। आग जो किसी कुंड में प्रज्वलित नहीं थी। उन्हीं ऊर्जा पुंजों की आग्नि उन्हें झुलसा रही थी। वही लोग जो क्षण भर पहले उन्मुक्त नजर आ रहे थे अब जैसे किसी अदृश्य बेड़ी में जकड़े हुए जल रहे थे।
भयानक था वह दृश्य और इतना भयानक था कि सताक्षी ने अपने नेत्र बंद कर दिए। उसे लगने लगा उसकी स्वयं की ऊर्जा भी समाप्त हो रही है और वह वहीं धरती… नहीं धरती तो नहीं थी वो, ना आकाश था… शून्य सा था कुछ। उसी शून्य में वह उस पल घुटने टेक कर बैठ गई।
घुटने टेक कर सताक्षी वहीं बैठ गई। सामने से प्रश्न उठा, “क्या हुआ? क्या लौट जाना चाहती हो?”। पहली बार सताक्षी दुविधा में आई… लौटे या ठहरे… लौट कर जाने के लिए क्या था उसके पास। एक घर, एक परिवार… जिसमें वो तो सबकी रही पर कोई उसका ना रहा। और ठहरने के लिए भी क्या था उसके लिए?
मन का द्वंद महाभारत सा लग रहा था और वो जैसे जीवन और मृत्यु के चक्रव्यूह में फंसे हुए अभिमन्यु की तरह हो चुकी थी। उसे जीवन चक्र में प्रवेश की विद्या का भान था पर शायद माता के गर्भ में वह भी चक्रव्यूह तोड़ कर बाहर आने का मार्ग सुन नहीं पाई थी।
इतनी देर में उसे इतना तो समझ आ गया था कि परलोक भी उसी चक्रव्यूह की एक पकड़ भर है। यातना हो, पीड़ा हो, प्रेम हो, अपनत्व हो, सब कुछ चक्रव्यूह का हिस्सा है। अचानक उसका प्राण जैसे पर कटे पंछी की तरह फड़फड़ाने लगा था। उसे मुक्ति चाहिए थी, मात्र जीवन से ही नहीं, मृत्यु से भी।